Friday, October 06, 2006

हिम्मत और चाहत

इंसान क्या चाहता है और उसे पाने के लिए जो करना है उसके लिए कितनी हिम्मत रखता है उसी से फैसला होता है कि उसे जो चाहिए वह मिलेगा या नहीं। कितनी बार मन करता है कि बस अब घर पर रहें, काम पर न जाएँ, लेकिन मजबूर हो कर जाना ही पड़ता है। सोचना पड़ता है कि क्या यही चाहते थे हम, या कुछ और? पैसा, शोहरत, या चैन की साँस? उन दिनों तो लगता ही नहीं कि पैसा और शोहरत पाने के लिए चैन की साँस खोनी पड़ेगी। लेकिन खोनी पड़ती है और उसके बाद भी चढ़ाई बस चढ़ते जाओ, चढ़ते जाओ, कभी खतम नहीं होती। कहीं रुक गए तो डर लगता है कि दूसरे आगे निकल जाएँगे। जीत तो सकते ही नहीं।

चाहत खत्म क्यों नहीं होती? साइकिल मिल गई तो कार चाहिए, एक कार मिल गई तो दो, कभी भी खत्म नहीं होती।

भारत में मधुमेह - कितना प्यारा नाम है, पर जानलेवा - बढ़ रहा है, और बहुत तेजी से। चिंता होती है कि मेरी भी हालत वैसी ही तो नहीं हो जाएगी जैसी मेरे परिवार के और बुजुर्गों की हुई है। उम्मीद करता हूँ कि कुछ समय निकाल पाऊँगा, कसरत करने के लिए। बीमारी की सबसे बुरी चीज है बेसहारापन की भावना, जो इंसान को नपुंसक और जोशहीन बना के ही छोड़ती है।

अक्सर लोग अच्छा काम नहीं कर पाते क्योंकि कोई बताने वाला नहीं होता है कि क्या करें।

Sunday, August 27, 2006

पहले वाली बात

कुछ दोस्तों से बात हो रही थी - प्यार व्यार के बारे में। प्यार हो तो जाता है, फिर शादी भी हो जाती है, पर उसके बाद क्या होता है? मुझे याद है कि पहले मैं किस तरह रोज दोपहर तीन बजने का इंतजार करता था - या पाँच बजने का - अफसोस कि मुझे अब वह समय भी याद नहीं है। और जब फोन नहीं मिलता था था पसीने छूट जाते थे। होंठ सूख जाते थे, लगता था किसी बात का उसे बुरा न लग जाए। दिल धड़कता था, यह सोच के कि आज क्या बात होगी। पहले दिन रात एक दूसरे के बारे में ही सोचते रहते थे, लेकिन अब नहीं। क्या है यह और क्यों होता है यह, किसे पता। क्या उस उन्माद भरे प्यार को जिन्दगी भर जिन्दा रखा जा सकता है? शायद नहीं, लेकिन यह बदलाव कैसे आया। देखो जो बोओगे वही तो काटोगे न। कुल चौबीस घंटों में आराम से बारह घंटे का समय रिश्ते को बढ़ाने और आगे चलने में जाता था। अब उस पर कितना समय जाता है। अब तो पता है कि वह बगल में ही है, और नाक में दम भी कर रही है। क्या उतना समय मैं देता हूँ जितना पहले देता था, क्या उतने ही इरादे बनाता हूँ मैं उसे खुश करने के, क्या काम जल्दी खत्म कर के वापस आने के ख्वाब देखता हूँ, या फिर बस दुनिया के सामने अच्छा परिवार और अच्छे शौहर का नाटक करने लायक चीजें इकट्ठी भर करता हूँ? क्या मैं अब अपने आपको तैयार करता हूँ इस बात के लिए कि आज जया को मुझमें क्या नया दिखेगा, आज जया में मुझे नया क्या दिखेगा, वह तो बस मेरे बच्चों की माँ भर है, और दुनिया को दिखाने के लिए, साथ तस्वीर खींचने के लिए है। लेकिन एक वक्त था जब ऐसा नहीं था। मेरे से ज्यादा सफल वह खुद थी, मेरे से ज्यादा ख्वाब अपने घर के बारे में उसने खुद देखे, और मेरी सफलता का एक बहुत बड़ा राज वह खुद है। तो यह सब प्यार व्यार, क्या बस ढोंग है, नाटक है, प्रपंच है, जो बस खत्म हो जाएगा, बस खुदा का बच्चे पैदा करवाने के लिए एक चाल है, इसमें दोस्ती, प्यार, रिश्ते विश्ते की कोई अहमियत नहीं है?


पुराने दोस्तों की जब बात हो रही है, तो पुराने दोस्त मिलने पर जब बात करते हैं, और सवालात पूछते हैं तो ऐसा लगता है जैसे वह पुराने वाले अमिताभ से बात करने की कोशिश कर रहे हैं, साथ ही वह कहते हैं, बाल सफेद हो गए हैं, पतले हो गए हो, वगैरह। इंसान बदल जाता है फिर भी वह, वह ही रहता है, कोई और नहीं होता। क्या इंसान इस तरह अपने आप को धोखा देता है, वह एक जैसा हमेशा क्यों नहीं रहता, बदल क्यों जाता है, छोटा बदलाव ही सही। कभी कभी आप वही होते हैं, पर दोस्त बदल जाते हैं या उनका नजरिया बदल जाता है।

आजकल के लड़का लड़की शायद परिवार से ज्यादा दोस्तों में अपने आपको खोजते हैं, क्योंकि अब रिश्तेदार रहे ही कहाँ आस पास। जो हैं वह भी बतौर दोस्त ही एक दूसरे को ज्यादा जानते हैं, आपस में जो बातें करते हैं वह वैसी बातें अपने घर के अंदर नहीं कर सकते हैं। क्यों है ऐसा, क्यों हमारे परिवार इतने कठोर और इतने दुनिया से परे?

लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरी सफलता का क्या राज है, मैं जैसा हूँ वैसा क्यों हूँ। तो राज तो कुछ भी नहीं है। मैं जैसा हूँ वैसा ही हूँ, और वह इसलिए हूँ कि मैंने दिक्कतें झेली हैं, जब दुनिया को लगता था कि मेरे पास सब कुछ है, तब भी मैंने दिक्कतें झेली हैं। इन दिक्कतों की अपनी खासियत यह है कि किसी को मुझसे सहानुभूति भी नहीं होगी, जो गरीब, असहाय हो उससे किसी को हमदर्दी होती है, लेकिन जो सफल है उसकी दिक्कतों में तो लोग और भाले भोंकना पसंद करते हैं, जैसे कि यह तुम्हारी सफलता का फल है - तुम्हें सब कुछ कैसे मिल सकता है - इसलिए तुम झेलो। इसलिए मैं अपनी दिक्कतों को जगजाहिर नहीं करना चाहता।

लड़कियों के साथ परेशानी यह है कि वह कुछ चाहती हैं, पर यह भी चाहती हैं कि वह चीज उन्हें चुपके से दे दी जाए, बिना माँगे, बिना इजहार किए। ठीक है हम भी यह खेल खेलेंगे, जब इतने खेल लिए हैं तो थोड़े और सही।

कुछ लोग बड़े हो कर भी बड़े नहीं होते। जिंदगी भर स्क्रिप्ट ही पढ़ते हैं, वही स्क्रिप्ट जो उनकी माँ, उनके बाप और उनके बच्चे या पति या पत्नी उन्हें देते हैं। ऐसी जिंदगी से तो मरना ही अच्छा है। अपने आप से अगर कुछ किया नहीं, लुढ़के नहीं, ठोकर नहीं खाई तो जिंदगी में किया क्या?

Friday, August 25, 2006

दोस्त की कामयाबी

किसी दोस्त की कामयाबी को देख के खुशी होती है या जलन? कुछ कुछ दोनो होता है, पर दोस्त जब बहुत ज्यादा कामयाब हो जाता है तो दूरियाँ बढ़ने लगती हैं। कुछ उसी तरह की चीज़ है कि जो चीज हम हासिल नहीं कर सकते हैं उसके बारे में मन बनाना पड़ता है कि हमें तो उसकी जरूरत ही नहीं है। अक्सर होड़ करने के बजाय इंसान ऐसी हालत में हथियार ही डाल के विमुख होने का नाटक करता है और अंततः विमुख हो जाता है।


जिन चीजों का शौक बचपन में होता है बड़े हो कर वही शौक पता नहीं क्यों मर जाते हैं। इसके बारे में किसी ने कहा है कि जब आप पहली बार किसी दुकान पर गोलगप्पे खाने जाते हैं और गोलगप्पे अच्छे लगते हैं तो दुबारा आने का मन करता है। लेकिन अगली बार आने पर गोलगप्पे उतने अच्छे नहीं लगते जितना पहली बार। क्यों, कि पहली बार कुछ उम्मीद नहीं थी, दूसरी बार उम्मीद थी।

भारत में जातिवाद को खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका है अपनी जात के बाहर शादी करना। रेखा, जया दोनो ही मेरी जात के नहीं थे। पर जब अपनी शादी की बात आती है तो सभी की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है, बगलें झाँकने लगते हैं, कि आप जिससे कहेंगे उसी से शादी कर लूँगा, मेरी कोई इच्छा नहीं है। फिर यही लोग शेर बन के दहाड़ते हैं कि भारत में जातिवाद है, यह सब बातें सिर्फ फिल्मों में होती हैं, असली दुनिया में इनके लिए कोई जगह नहीं है। ये कहो कि तुम्हारे अंदर हिम्मत नहीं है। दरअसल सच, फिल्मों से भी ज्यादा मधुर, ज्यादा कड़वा और ज्यादा आश्चर्यजनक होता है, इसके कई उदाहरण मेरे सामने हैं।

अपने दिल का दर्द किसी और को कहना कमजोरी है। इसलिए हम अपने दिल का दर्द किसी को नहीं कहते। दुनिया के लिए तो हम बस पैसे वाले,सफल इंसान हैं, जो बहुत खुश है। लेकिन किसी का दिल किसने देखा है और किसी के दिल की बात किसने सुनी है, और सुनी भी है तो कहाँ पहचानी है। सिटिजन केन नाम की एक फिल्म है जिसमें एक बहुत सफल, बहुत अमीर इंसान की कहानी है। उसे बचपन में अपने घर से ले जाया जाता है और फिर पाला पोसा जाता है अमीरी में, माता पिता से दूर। जिस समय उसे ले जाया गया वह कुछ स्कीइंग कर रहा होता है, और स्की का नाम था रोजबड। वह उससे छीन ली जाती है क्योंकि उसे ले जाना था या ऐसा ही कुछ। एकदम अमीरी में मरते वक्त वह एक ही शब्द कहता है, रोजबड। उस समय यह समझने वाला उसके आस पास कोई नहीं था जिसे पता होता कि रोजबड है क्या चीज। कहानी थोड़ी गलत हो सकती है, लेकिन दुखभरी कहानी थी। अपने चेहरे पर रोज मुस्कान ला पाना एक बहुत बड़ी बात है। मुस्कान आ गई तो जीवन सफल है।

मेरे एक दोस्त का हाल ही में तलाक हुआ है। शायद मेरे बाप के जमाने में उनके दोस्तों के तलाक नहीं हुआ करते थे, लेकिन मैं अब चार दोस्तों को जानता हूँ जिनके तलाक हो चुके हैं। उसने मुझसे पूछा कि मैं क्या करूँ अब, आगे कैसे बढ़ूँ। मुझे समझ नहीं आया कि अब क्या कहूँ, ऐसे सवाल कोई रोज तो नहीं पूछता है। फिर याद आई बचपन में पढ़ी कविता, नीड़ का निर्माण फिर फिर। चिड़िया फिर घोंसला बनाती है। और रहती है उसमें। शायद ऐसे ही कुछ शब्दों की जरूरत थी उसे। मैंने यह नहीं पूछा कि तलाक क्यों हुआ, क्या पूछता। शायद वह और मैं लड़की होते तो ज्यादा बात होती इस बारे में।

अपने लिखे को दुबारा पढ़ता हूँ तो लगता है कि क्या लिखा है मैंने, क्या यही मैं हूँ? शायद यही हूँ मैं, लेकिन क्या मैं ऐसा ही मैं अपने लिए परिकल्पित करता हूँ?

किस्मत और संयोग

इंसान क्या बनता है, यह एक के बाद एक हुए संयोगों को ऊपर निर्भर है। अब आप इसे किस्मत कह लें या गणित, आपके ऊपर है। अब हर बार तो आप किस्मत को दोष नहीं दे सकते और न ही अपनी गणित की शान बघार सकते हैं।

बस ये नहीं समझ आता कि लोग ज्योतिषियों के चक्कर में पड़ते क्यों हैं। अगर आप मानते हैं कि भविष्य में क्या होना है वह पहले से ही तय है तो उसके बारे में जान के क्या हासिल होने वाला है, अगर आप सचमुच में मानते हैं कि जो होना है वह हो के ही रहेगा तो नपुंसकों की तरह बैठे रहें, भविष्य जानने का भी जहमत क्यों उठा रहे हैं।

बिल्कुल भी पल्ले नहीं पड़ी ये बात अपने मोटे दिमाग में। ज्योतिष को विज्ञान ठहराने की कोशिशें करते रहते हैं, आखिर रोजी रोटी का सवाल है और विज्ञान की धाक है। दूसरी ओर कहते हैं कि वैज्ञानिकों को कुछ अता पता थोड़ी है, कभी कहते हैं प्लूटो ग्रह है, फिर कहते हैं नहीं है। हमारी ज्योतिष तो हमेशा पक्की रहती है। इतनी पक्की रहती है तो विज्ञान साबित करने के पीछे क्यों पड़े हो।

हिंदुस्तान में दफ्तर में देर तक काम न करो तो साहब को संतुष्टि नहीं मिलती है, इतना ही नहीं, खुद को भी नहीं मिलती है। पता नहीं चक्कर क्या है। पता नहीं दिन के आखिरी दो घंटों में ऐसा क्या तीर मार लिया जाता है। दिन में तीन बार चाय पीने जाएँगे और डेढ़ घंटे खाना खाने में लगाएँगे, और उसके बाद शाम को दफ्तर से देर से निकलेंगे। अब इसमें दो चीजों का विरोधाभास है, एक यह कि काम समय से खत्म करो, दूसरा यह कि मेहनत करों, ज्यादा काम करो।

अगर मैं लड़की होता तो शायद सफेद रंग के और लाल रंग के कपड़े पहनना खूब पसंद करता। पता नहीं क्यों। और सजना धजना भी काफी पसंद करता।

Thursday, August 24, 2006

जिंदगी की तन्हाई

सोचने की बात है कि इंसान आखिर चाहता क्या है - सफलता और आसपास लोग, या शांति और तन्हाई। इंसान जब सफल हो जाता है तो खुश होता है क्योंकि लोग उसके चारो ओर नाचते हैं। लेकिन यह एक कीमत और जिम्मेदारी के साथ होता है क्योंकि यह सफलता हमेशा एक होड़ के अधीन होती है। आप सफल हुए तो उसके बजाय कोई और असफल हुआ। फिर ऐसी सफलता का फायदा क्या जो किसे के ऊपर पैर रख कर, उसे रौंद कर पाई गई हो।

स्कूल में एक बार एक लड़की ने मुझे कहा था, चलो दोनो फलाना काम साथ करते हैं। उसकी ओर से दोस्ती का पहला कदम था। लेकिन मैंने उसे दुत्कार दिया। पहले टाला, फिर बाद मे कहा कि मुझसे बात मत किया करो। वह भी ऐसे ही बिना कारण के। क्यों किया ऐसे, शायद अपनी इसी इज्जत, और सफलता को बरकरार रखने के लिए क्योंकि लड़कियों से बात करना शराफत की निशानी नहीं मानी जाती और जो लड़की लड़के से बात कर रही हो वह तो क्या ही शरीफ होगी। जरूर उसे दुख हुआ होगा, मुझे तो सालों बाद याद आया कि हाँ उसके साथ ऐसा व्यवहार हुआ होगा और उसका उसे दुख हुआ होगा।

तो ऐसी सफलता का कुछ फायदा नहीं है।

जिंदगी के एक पड़ाव से दूसरे में जाते समय पीछे की चीजें छूट जाती हैं और नई चीजों में घुलने मिलने में समय लगता है। फिर कभी वापस मुड़ के देखता हैं तो पुरानी चीजें, और उनकी पड़ी हुई आदत मन में एक अजीब सी भावना पैदा करती है, लगता है कि यही अच्छा था न। कब नई चीज पुरानी बन जाती है, कब उसकी आदत पड़ जाती है, पता ही नहीं चलता।

अजीब दास्तान

मेरी जिंदगी एक अजीब दास्तान है जिसमें खुशी है लेकिन खुश होने से डर भी है। खुल कर हँस नहीं सकता और खुल कर रो नहीं सकता। सबसे मिलने और बात करने का मन करता है पर हिचकिचाहट भी होती है।

एक जमाना था जब ऐसा लगता था कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ। अब सीख गया हूँ कि ऐसा नहीं है, इसलिए अपनी औकात में रहता हूँ। पर दुःख होता है कि उस तरह ऊँचाइयों को छूने और बुलंदियों को पाने के लिए ऊँची कुलाची अब कभी नहीं मारूँगा क्योंकि मुझे पता है कि मैं वहाँ तक पहुँच नहीं पाऊँगा।

अब ऐसा नहीं है। कई बार कुलाची मार कर मुँह के बल गिर चुका हूँ।

अपनी जिंदगी के वाकयों को याद कर रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि क्या भूलूँ और क्या याद करूँ।

कालेज में एक लड़की की कापी में लिखा देखा था

मैं, मेरा मुझे। स्वयं अपने आप से लिपटे हुए शब्द।

शायद उसने ऐसे ही कुछ सोचते हुए लिखा होगा। लेकिन हिम्मत नहीं हुई उससे इसके बारे में कभी कुछ पूछने की। अगर वह इसे पढ़ रही हो तो शायद उसे पता चल जाएगा कि उसके बारे में बात हो रही है और शायद उसे यह याद भी न होगा कि कभी उसने ऐसा लिखा था। लेकिन उससे क्या है।

शुरू शुरू में जब कुछ भी लिखता था तो लगता था कि मैं कुछ भी लिखूँगा मजेदार होगा लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है। अब लगता है जीवन के दुःखों के बारे में लिखना जरूरी है। क्योंकि अक्सर मैं खुद दुःखी होता हूँ।

मैं अपनी जात खुद नहीं जानता था पंद्रह साल की उमर तक। लेकिन फिर दुनिया ने अहसास दिला दिया कि मेरी भी एक जात है। और बहुत गंदी जात है। लेकिन मैं अपने आप को उस गंदी जात का हिस्सा नहीं मानता हूँ। मैं, मैं हूँ।

स्वयं अपने आप से लिपटा हुआ और दुनिया जहान से बेखबर।

यही मेरी खूबी है और यही मेरी कमी भी।

तेरे पास माँ है?

तेरे पास माँ है तो मैं क्या करूँ? मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, पैसे हैं, दौलत है, जया है और रेखा है।