Thursday, August 24, 2006

अजीब दास्तान

मेरी जिंदगी एक अजीब दास्तान है जिसमें खुशी है लेकिन खुश होने से डर भी है। खुल कर हँस नहीं सकता और खुल कर रो नहीं सकता। सबसे मिलने और बात करने का मन करता है पर हिचकिचाहट भी होती है।

एक जमाना था जब ऐसा लगता था कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ। अब सीख गया हूँ कि ऐसा नहीं है, इसलिए अपनी औकात में रहता हूँ। पर दुःख होता है कि उस तरह ऊँचाइयों को छूने और बुलंदियों को पाने के लिए ऊँची कुलाची अब कभी नहीं मारूँगा क्योंकि मुझे पता है कि मैं वहाँ तक पहुँच नहीं पाऊँगा।

अब ऐसा नहीं है। कई बार कुलाची मार कर मुँह के बल गिर चुका हूँ।

अपनी जिंदगी के वाकयों को याद कर रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि क्या भूलूँ और क्या याद करूँ।

कालेज में एक लड़की की कापी में लिखा देखा था

मैं, मेरा मुझे। स्वयं अपने आप से लिपटे हुए शब्द।

शायद उसने ऐसे ही कुछ सोचते हुए लिखा होगा। लेकिन हिम्मत नहीं हुई उससे इसके बारे में कभी कुछ पूछने की। अगर वह इसे पढ़ रही हो तो शायद उसे पता चल जाएगा कि उसके बारे में बात हो रही है और शायद उसे यह याद भी न होगा कि कभी उसने ऐसा लिखा था। लेकिन उससे क्या है।

शुरू शुरू में जब कुछ भी लिखता था तो लगता था कि मैं कुछ भी लिखूँगा मजेदार होगा लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है। अब लगता है जीवन के दुःखों के बारे में लिखना जरूरी है। क्योंकि अक्सर मैं खुद दुःखी होता हूँ।

मैं अपनी जात खुद नहीं जानता था पंद्रह साल की उमर तक। लेकिन फिर दुनिया ने अहसास दिला दिया कि मेरी भी एक जात है। और बहुत गंदी जात है। लेकिन मैं अपने आप को उस गंदी जात का हिस्सा नहीं मानता हूँ। मैं, मैं हूँ।

स्वयं अपने आप से लिपटा हुआ और दुनिया जहान से बेखबर।

यही मेरी खूबी है और यही मेरी कमी भी।

1 comment:

Siya Sejwal said...

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