सोचने की बात है कि इंसान आखिर चाहता क्या है - सफलता और आसपास लोग, या शांति और तन्हाई। इंसान जब सफल हो जाता है तो खुश होता है क्योंकि लोग उसके चारो ओर नाचते हैं। लेकिन यह एक कीमत और जिम्मेदारी के साथ होता है क्योंकि यह सफलता हमेशा एक होड़ के अधीन होती है। आप सफल हुए तो उसके बजाय कोई और असफल हुआ। फिर ऐसी सफलता का फायदा क्या जो किसे के ऊपर पैर रख कर, उसे रौंद कर पाई गई हो।
स्कूल में एक बार एक लड़की ने मुझे कहा था, चलो दोनो फलाना काम साथ करते हैं। उसकी ओर से दोस्ती का पहला कदम था। लेकिन मैंने उसे दुत्कार दिया। पहले टाला, फिर बाद मे कहा कि मुझसे बात मत किया करो। वह भी ऐसे ही बिना कारण के। क्यों किया ऐसे, शायद अपनी इसी इज्जत, और सफलता को बरकरार रखने के लिए क्योंकि लड़कियों से बात करना शराफत की निशानी नहीं मानी जाती और जो लड़की लड़के से बात कर रही हो वह तो क्या ही शरीफ होगी। जरूर उसे दुख हुआ होगा, मुझे तो सालों बाद याद आया कि हाँ उसके साथ ऐसा व्यवहार हुआ होगा और उसका उसे दुख हुआ होगा।
तो ऐसी सफलता का कुछ फायदा नहीं है।
जिंदगी के एक पड़ाव से दूसरे में जाते समय पीछे की चीजें छूट जाती हैं और नई चीजों में घुलने मिलने में समय लगता है। फिर कभी वापस मुड़ के देखता हैं तो पुरानी चीजें, और उनकी पड़ी हुई आदत मन में एक अजीब सी भावना पैदा करती है, लगता है कि यही अच्छा था न। कब नई चीज पुरानी बन जाती है, कब उसकी आदत पड़ जाती है, पता ही नहीं चलता।
Thursday, August 24, 2006
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2 comments:
हिन्दी ब्लाग-जगत में आपका स्वागत है।
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i impressed very much on ur ideas thankyou very much
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